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Archive for the ‘आलेख’ Category


विदेश की धरती पर देश के लोगों के साथ एक गुनगुनाती शाम

हिंदी और हिंदुस्तानियों के नाम
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जून 16, 2018 को फ्रीमोंट कैलिफ़ोर्निया में अखिल विश्व हिंदी ज्योति की एक रंगारंग गोष्ठी संपन्न हुई। गोष्ठी में आदरणीय डॉ. जगदीश व्योम एवं उनका परिवार, आदरणीय राजेश राज जी, उनकी पत्नी, ग़ज़ल गायक डॉ. रोशन भारती , आई. सी. सी. के दिनेश शर्मा, अध्यक्षा नीलू गुप्ता जी तथा उपाध्यक्षा मंजु मिश्रा के साथ साथ विश्व हिंदी न्यास के एवं अखिल विश्व हिंदी ज्योति के माननीय सदस्यों की उपस्थिति में कार्यक्रम का शुभारंभ डॉ. व्योम ने दीप जला कर किया, सस्वर वंदना पाठ संस्था की वरिष्ठ सदस्या आदरणीय शकुंतला बहादुर जी के साथ अतिथियों एवं संस्था के सभी सदस्यों ने मिल कर किया।

सर्व प्रथम अतिथियों एवं सदस्यों का परिचय का आदान-प्रदान हुआ उसके बाद डॉ. व्योम ने हाइकू विधा के बारे में बहुत अच्छी जानकारी दी. उन्होंने बताया कि हाइकू कोई छंद नहीं है हाइकू अपने आप में एक सम्पूर्ण कविता है। हाइकू लिखना बहुत सरल भी है लेकिन हाइकू लिखना बहुत कठिन भी है उन्होंने हाइकू दर्पण और हाइकू कोष के बारे में भी जानकारी दी। उन्होंने यह भी बताया कि हाइकू का प्रवासी भारतीयों का एक अंक पहले निकल चुका है जिसमे काफी प्रवासी हाइकूकार थे, अब दूसरे अंक की योजना है और वे चाहते हैं कि इस बार जो अंक निकले उसमे और नए लोग भी जुड़ें

डॉ. व्योम ने हाइकू, गीत एवं नवगीत सुनाये। आदरणीय राजेश राज जी ने बहुत ही सुन्दर सुन्दर गीत सुनाये, उनकी प्रभावी प्रस्तुति से सभी श्रोता मन्त्र मुग्ध हो गए। डॉ. रोशन दिनेश, शर्मा, सुनीता माथुर नारायण, दामिनी शर्मा ने गज़ले सुनायीं। नीलू गुप्ता जी, चन्द्रिका जी ने हाइकू सुनाये, शकुंतला बहादुर जी, डी एन्जा की हिंदी विद्यार्थी तान्या बलूजा, तारा दुबे, अर्चना पांडा एवं मंजु मिश्रा ने भी रचना पाठ किया। कुल मिला कर एक बहुत ही यादगार शाम रही. अलका मदान जी ने एक बहुत ही अच्छी और गहरी बात कही कि ” जैसा तुम सुनाओ, वैसा ही कोई सुने, ऐसा ऐसे ही नहीं होता” ये बात बिलकुल सही है कि अच्छी महिफल के लिए जितने महत्त्वपूर्ण अच्छा सुनाने वालेहोते हैं उतना ही अच्छा सुनने वाले भी। अच्छे श्रोताओं के बिना महफ़िल सम्पूर्ण नहीं होती।

गोष्ठी में नीलू गुप्ता जी के सद्यःप्रकाशित हाइकू संग्रह “गगन उजियारा” का विमोचन भी किया गया।

गोष्ठी में उपस्थित अखिल विश्व हिंदी ज्योति एवं विश्व हिंदी न्यास के सभी सदस्यों का धन्यवाद, जो किसी कारणवश नहीं आ सके उनसे अनुरोध कि अगली बार अवश्य समय निकालें और हमारे साथ हिंदी के उत्सव में शामिल हों।

– मंजु मिश्रा

https://gatividhiyan.blogspot.com/search/label/केलिफोर्नियाँ%20में%20गोष्ठी

 

 

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मेरी मातृ भाषा हिंदी है और मुझे, हिंदी बोलने में बहुत गर्व होता है।  पिछले 15 वर्षों से अमेरिका में हूँ लेकिन आज भी घर में मेरी बोलचाल की भाषा हिंदी ही है।  जब जहाँ  कुछ हिंदी भाषी इकट्ठे होते हैं हम हिंदी में ही बात करते हैं, ये अलग बात है कि रोज की बातचीत में काफी अंग्रेजी के शब्द भी शामिल हो जाते हैं 

इस बात का बहुत दुःख होता है कि आज़ादी के इतने सालों के बाद भी आज भी हिंदी अपने ही घर में उपेक्षा की शिकार है। हिंदी अपने ही घर में सौतेला व्यवहार झेल रही है। और अंग्रेजी… विदेशी हो कर भी  अपनी पूरी ठसक के साथ भारत की सभी भाषाओं के बीच उच्च पद पर आसीन है। जानते तो सब हैं कि देश को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा हिंदी हो सकती है। घर के यानी कि देश के बाहर, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी ही इकलौती भाषा है जो हमारे हिन्दुस्तानी होने की पहचान मानी जाती है लेकिन फिर भी अखंड राष्ट्र भारत वर्ष की पहचान एक भाषा हो, आगे बढ़ कर ये अलख जगाने का साहस कोई नहीं दिखाता। किसी भी राजनेता को ये कोई जरूरी मुद्दा नहीं लगता।

हिंदी राजभाषा, संपर्क भाषा और राष्ट्रभाषा के तौर पर इस बहुभाषी देश को एकता के सूत्र में बांधने का काम कर सकती है। हिन्दुत्व का डंका बजाने वाली हमारी वर्तमान केंद्र सरकार को चाहिए कि वह हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार करे, उसका विकास करे, जिससे संपूर्ण भारतवर्ष की अभिव्यक्ति का माध्यम एक ही भाषा बन सके।

हिन्दी को जन जन की भाषा बनाने के लिये ख़ास तौर पर अहिन्दी भाषियों को हिन्दी से जोडऩे के लिए, हिन्दी को सरल और सुगम रखना होगा, अनावश्यक रोक-टोक, नियमों के बँधनो से मुक्त करना होगा। हिन्दी को उन्मुक्त रूप से स्वाभाविक वातावरण में फलने फूलने दीजिये बोनसाई मत बनाइये। हिन्दी प्रेमियों से एक विनम्र निवेदन है कि जो हिन्दी/अहिन्दी भाषी, हिन्दी बोलने की शुरुआत करना चाहते हैं  उनको अति शुद्धता के फेर मे डाल कर हिन्दी से दूर मत कीजिये। 

सभी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएँ ! 

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आपने कभी सुनयोजित तरीके से किसी को पागल करार देने का ड्रामा फिल्मों में देखा है, खास तौर से हिंदी फिल्मों में ।  जरूर देखा होगा जहाँ किसी एक व्यक्ति को चार लोग मिल कर पागल-पागल  कहते हैं, शुरू शुरू में तो वो सामान्य ढंग से कहता है मैं पागल नहीं हूँ, लेकिन बार बार कहने पर उसको गुस्सा आ जाता है, फिर धीरे धीरे  वो चीखने चिल्लाने लगता है, कभी कभी तो मारने को भी उतारू हो जाता है और  उसकी यह हालत देख कर  सब ये मान लेते हैं कि वो सचमुच पागल है और बस फिर क्या… उन लोगों का मकसद पूरा हो जाता है जो उसे पागल करार देना चाहते थे, जबकि यह सब एक सुनियोजित षडयंत्र था, इसमें उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति का कुछ लेना देना था ही नहीं

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ऐसा ही हमारी राजनीति में भी है।  यहाँ भी  बहुत सुनयोजित तरीके से किसी की छवि बनायी या बिगाड़ी जाती है।  ऐसा ही कुछ शायद राहुल गाँधी के साथ सोशल मीडिया के माध्यम से किया गया।  बहुत ही सुनियोजित तरीके से एक सोची समझी साजिश की तरह उनकी छवि को मजाक का पुलिंदा बनाने का काम किया गया।  यह मैं यूँ ही हवा में नहीं कह रही हूँ आज मैंने एक पुरानी खबर पढ़ी जहाँ से यह विचार आया।

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आज अचानक wall Street Journal के ब्लोग के बहुत पुराने अंक में एक खबर पर नजर पड़ी और उसमे जो खबर मैंने पढ़ी मुझे लगा कहीं मैं कुछ गलत तो नहीं देख रही हूँ, लेकिन नहीं यह खबर तो सचमुच राहुल गाँधी के बारे में ही थी।  जिसमे उन्होंने उस विचारधारा को हकीकत में बदलने की कोशिश की बात की थी जो हम सब कभी न कभी सोचते हैं या कहते हैं और वो बात … यह है कि राजनीति में खासतौर पर चुनाव प्रत्याशी बनने के लिए एक निश्चित पात्रता का मापदंड होना चाहिए जिससे उनकी योग्यता और अभिरुचि के आधार पर ही उनका चुनाव किया जा सके और एक सुयोग्य प्रत्याशी ही चुनाव लड़ सके।  wall Street Journal की यह खबर जो 2013 में छपी थी जिसमे राहुल गाँधी ने Entrance Test for Congress Candidates की बात की है, इस बात की तस्दीक करती है कि उनकी मंशा राजनीति  में कुछ अच्छा करने की थी। लेकिन लखनऊ कानपुर की भाषा में कहें तो राजनीति के धुरंधरों ने, जिसमे दूसरी पार्टियों के साथ साथ उनकी अपनी पार्टी के भी वो लोग शामिल रहे होंगे जिनको शायद युवा शक्ति से अपने लिये कुछ खतरा महसूस हुआ होगा, उनको नक्कू बना दिया, उनकी कम उम्र को जान बूझकर उनकी कमअक्ली कारार देने का ड्रामा रचा गया  और इस झूठ को इतनी बार दोहराया गया कि वो सच लगने लगा और शायद पागल साबित करने वाले फ़िल्मी सीन वाला किस्सा यहाँ भी हो गया।

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इस लेख के आखिर में  उस खबर का लिंक है आप सब भी पढ़िए और देखिये और एक पल के लिए निष्पक्ष होकर सोचिये कि अगर राहुल गाँधी का यह सुझाव सिर्फ कांग्रेस में ही नहीं बल्कि हर पार्टी में लागू  हो जाता और देश की राजनीति में पात्रता के मापदंड के आधार पर चुनाव प्रत्याशी के रूप में सुयोग्य व्यक्तियों का चयन किया जाता तो देश का, जनता जनार्दन का कुछ भला ही होता

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ये रहा लिंक उस खबर का आप भी पढ़ कर देखिये

Entrance Test for Congress Candidates

AGENCE FRANCE-PRESSE/GETTY IMAGES

Congress party Vice President Rahul Gandhi has created a five-page test to shortlist candidates seeking to contest elections for his party.

India’s ruling-Congress party has decided to test the knowledge of hopefuls who wish to contest assembly elections due later this year.

A five-page application form, prepared by Rahul Gandhi, the Congress party’s vice president, requires ticket-seekers to answer questions mostly related to social, political and demographic issues in the constituency where the applicant hopes to contest elections.

Assembly elections are due later this year in the states of Madhya Pradesh, in central India, Rajasthan, in the west, Chhattisgarh, in the east, Delhi in the north and Mizoram in the north east.

Aspirants will be asked to give details about their personal background including caste and assets, whether they have a criminal record or any business background, Congress party lawmaker, Madhu Goud Yaskhi, told India Real Time Tuesday. He added that caste would not be a deciding factor in choosing candidates.

They’ll also have to detail whether they have previously contested elections, give a statement of purpose and their social and political achievements in the designated constituency, In addition, they will have to explain if they were ever suspended from the party or quit themselves, said Mr. Yaskhi.

“This is the democratic way of shortlisting candidates,” Mr. Yashki added. “The response will allow assessors to evaluate personality traits and other aspects of the potential candidate and open the party’s gates for anyone with a clean background,” he said.

The application form will be filled in by Congress party observers – office bearers at the local, district and state levels – according to information given by party ticket-seekers. Once the form is completed and submitted, it will be closely studied by the Congress party’s local-level officers who will then send their recommendation to the party’s central leadership.

The Congress party’s state units will have a “decisive say” in the selection of candidates since “they know the candidates’ merit better” than the party’s leaders at the national level, Mr. Yashki said.

For this, Congress is training its team of local leaders across the country by organizing workshops on different issues, Mr. Yashki said.

The program comes against the backdrop of a recent order by India’s Supreme Court that disqualified politicians from contesting national and state elections from prison.

nationwide survey conducted in July by the Association for Democratic Reforms, a New Delhi-based advocacy group for transparency in governance, showed nearly one-third of members of the lower house of Parliament, or Lok Sabha, and an almost equal number of state legislators, have criminal cases, including kidnapping, robbery, murder and rape, pending against them.

Mr. Yashki said the application forms are “just one of the party’s ideas to make the selection process more transparent.”

Still, political experts and opposing parties are doubtful this will deter aspirants from influencing local leadership in the selection process.

“The idea is good. But much of it will depend on how the party manages to objectively evolve a method that ensures transparency,” said Navnita Chadha Behera, professor in the department of political science at Delhi University.

She said there would be “layers of intermediaries” within the party, with a greater say in selection of candidates. “The biggest challenge will be how honest these people remain in choosing the right candidates,” Ms. Behera said.

The main opposition Bharatiya Janata Party dismissed it as an “unrealistic” program.

“This type of exercise cannot help a party that has been in power for last nine years and achieved nothing,” BJP’s vice president Mukhtar Abbas Naqvi told India Real Time Tuesday.

Moreover, “selection of a particular candidate does not ensure he is going to win elections,” Mr. Naqvi added.

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कुछ दिन पहले एक चर्चा पढ़ी थी तुकांत और अतुकांत कविता के बारे में,  तो मन में एक विचार आया कि आखिर कविता कैसी होनी चाहिए, क्या तुकांत होना ही कविता की जरुरी शर्त है 

कविता तुकांत होनी चाहिए या अतुकांत ? इस पर सबके अपने अपने विचार हैं। … क्या तुकांत होना या फिर उसमे लय और गेयता होना मात्र ही कविता  होने की निशानी है, जो तुकांत नहीं  वो कविता नहीं , इस विचारधारा से मैं  इत्तेफ़ाक नहीं रखती।  मेरा मानना है कि  फूल पत्ती, पौधे, पेड़  ….  फूल पत्ती, पौधे, पेड़  ही  रहते हैं चाहे वो घर के आँगन में हों, गमले में हों, बोन्साई में हों या जंगल में हों  …  उनके रंग रूप, खुशबू साइज़ आदि में तो फर्क  हो सकता है लेकिन वो रहेंगे तो फूल पत्ती, पौधे, पेड़  ही न  … बस ऐसे ही कविता रहेगी  तो कविता ही चाहे  तुकांत हो या अतुकांत, छंद बद्ध हो या न हो।  

कविता में तुकांत या अतुकांत से जादा  सहज प्रवाह और भाव पक्ष पर जोर होना  चाहिए। कविता होने की सबसे जरुरी शर्त होनी चाहिए प्रभावी सम्प्रेषण, पाठक से सहज संवाद स्थापित कर पाने की क्षमता और सहज प्रवाह, कविता में यदि सहज प्रवाह नहीं है, वो बीच बीच में टूटती सी लगती है तो उसे कविता न कह कर गद्य कहा जा सकता है। छंदबद्ध या तुकांत और गीत कविता का इतिहास बहुत पुराना एवं समृद्ध है और  इस बात में कोई संदेह नहीं  कि छंदबद्ध कविता लिखना बहुत मुश्किल काम है, इसके लिए बहुत साधना की  जरुरत है , नियम कायदे में बंध  कर अपने भावों को मूल रूप में प्रस्तुत कर पाना आसान नहीं होता ।  इसके उलट अतुकांत कविता में रचनाकार अपने भावों के सहज प्रवाह के साथ बहाव में बहता चला जाता है, उसको मात्रा एवं नियमों के बंधन का पालन नहीं करना होता लेकिन इसका यह मतलब बिलकुल भी नहीं कि अतुकांत कविता कविता ही नहीं होती। अतुकांत कविता में भी एक प्रवाह होता है सार्थकता होती है।  

बहुत सी अतुकांत कवितायेँ हैं जो बेहद सार्थक, सशक्त हैं जिनको पढ़ते हुए पाठक उनके सहज प्रवाह के साथ यूँ बहता चला जाता है कि उसे कविता के तुकांत या अतुकांत होने का मुद्दा पल भर को भी याद नहीं आता और न ही उसको कविता में लय का न होना अखरता है,  वो तो कविता के अर्थ एवं भाव में पूरी तरह से डूब जाता है।  

उदहारण के तौर पर मृदुला प्रधान जी की यह छोटी कविता अतुकांत होते हुए भी पूर्ण रूप से कविता ही है और पाठक को कहीं भी यह सोचने का अवसर नहीं देती कि क्योंकि यह तुकांत नहीं है अतः यह कविता नहीं है 

“निकले हुये हैं 
भयावह सर्पों के 
समूह
तफ़रीह के लिये..
ऐसे में 
कंघी,पाउडर,लिपस्टिक
रखो न रखो
सतर्क,सशक्त,सुदृढ़
साहस..
ज़रूर रख लेना
पर्स में 
घर से निकलते हुये.. 
……  
साड़ी में फ़ॉल लगाते हुये..
सुई के धागों में 
उलझता-सुलझता हुआ 
मेरा मन 
सपनों के टाँके 
लगाता रहा ..
और मैं..समय को 
दोनों हाथों से 
पकड़कर 
मिलाती रही ..
जोड़ती रही ..
 .

(अतुकांत कविता के कुछ और सुन्दर उदाहरण डॉ श्याम गुप्त जी के लेख से  साभार )

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” गणनायक की कृपादृष्टि को ,
माँ वाणी ने दिया सहारा।
खुले कपाट बुद्धि के जब, तब-
हुए शब्द-अक्षर संयोजित;
पायी शक्ति लेखनी ने फिर 
—————– 
” नए तत्व नित मनुज बनाता ,
जीवन कठिन प्रकृति दोहन से।
अंतरिक्ष आकाश प्रकृति में,
तत्व, भावना, अहं व ऊर्जा ;
के नवीन नित असत कर्म से,
भार धरा पर बढ़ता जाता।।”
इन कविताओं में इनका अतुकांत होना कहीं भी कविता के भाव एवं  सौंदर्य के आड़े आया हो ऐसा नहीं लगता।  
हाँ,  वैसे  इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि आजकल अतुकांत कविता के नाम पर कुछ भी परोसा जा रहा है और कुछ प्रयोग तो इतने अबूझ हैं कि पाठक बेचारा सर धुनता रह जाता है मगर क्या मजाल कि कविता का सर-पैर कुछ भी पल्ले पड़ जाये।  लेकिन सिर्फ इस बात के आधार पर अच्छी अतुकांत कविता को साहित्य की मुख्य धारा से न तो निकाला ही जा सकता है और न ही उसका मजाक उड़ा कर उसको किसी भी तुकांत कविता की तुलना में काम आँका जाना चाहिए।  कविता को उसकी गुणवत्ता एवं प्रभाव के आधार पर ही आँका जाना चाहिए

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 कबीर जयंती के अवसर पर उस महान समाज सुधारक को शत शत नमन ! 

कबीर आज भी उतने ही प्रासंगिक  हैं जितने कि  आज से सैकड़ों साल पहले थे।  कबीर किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं है, कबीर तो एक सोच है जो समाज में फैली हुयी बुराइयों का प्रतिरोध करने के लिए जन्म लेती है।

और प्रतिरोध की परंपरा सनातन है, जब जब राजनीति  में प्रतिबद्धता का क्षय अपने चरम पर पहुँचता है, तब एक कबीर का जन्म होता ही है।  दूसरे को दुर्बल और स्वयं को प्रबल घोषित करने की उत्कट इच्छा ही इस प्रतिरोध की शक्ति को जन्म देती है।

कबीर ने किसी नियम और विधा के अंतर्गत साहित्य रचने के लिए कभी कुछ नहीं कहा उन्होंने तो जो देखा, जो भोगा, अपने आस-पास जो महसूस किया उसे ही सहज सरल बोलचाल की भाषा में कह दिया, लेकिन उनकी वो दिल से निकली बातें सीधे दिलों तक पहुंची और एक विचारधारा बन गईं।  वो विचारधारा जो आंधी बन कर चली और तमाम तात्कालीन गतिरोधों के बावजूद, अपनी पूरी ताकत से समाज में व्याप्त गन्दगी को बहाकर दूर  ले गयी

एक कवि जिस सहजता और सरलता से अपनी कविता के माध्यम से बात को जन जन के मानस तक पहुँचा सकता है वो शायद और किसी माध्यम से उतना आसान नहीं, बस शर्त ये है कि कवि को खुद से ईमानदार होना चाहिये । यूं तो आज भी बहुत से ऐसे कवि हैं जिन की कविता समाज में फैली बुराइयों और कुरीतियों पर चोट करती है, लेकिन उनको राजनीतिक रंग देकर पटल से हटाने की पूरी कोशिश की जाती है ।

कबीर के समय  में भी समाज राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक सभी दृष्टियों से विघटन की ओर जा रहा था और आज भी वही हो रहा है।  आज भी समाज उसी तरह के संक्रमण के दौर से गुजर रहा है,  अव्यवस्था, भृष्टाचार कुशासन एवं अस्तव्यस्तता अनेक प्रकार के आडंबर, कुप्रथाओं एवं अंधविश्वास से बुरी तरह से घिरा हुआ है। 

कबीर युगद्रष्टा थे, उन्होने वर्ण व्यवस्था, अन्धविश्वास, धार्मिक आडम्बर जैसी कुरीतियों का विरोध करके समाज में व्याप्त द्वेष को मिटा कर साफ किया था। सच कहें तो आज फिर एक कबीरवादी विचारक की जरूरत है जो समाज मे व्याप्त गंदगी को, विसंगतियों को बिना किसी भेदभाव के हर जाति, हर वर्ग मे से धो-पोंछ कर साफ कर सके ।

सब के लिये एक बात, एक नियम और एक कायदा, इस सन्दर्भ मे  अभी हाल मे ही देखा हुआ डा. कुमार विश्वास का एक वीडियो याद आता है उसमे एक पंक्ति कही है उन्होने कि “ राजनीति का धर्म निभाओ लेकिन धर्म की राजनीति मत करो” , यह बात किसी भी लाग लपेट से परे कहीं न कहीं उसी कबीर वादी विचारधारा का ही हिस्सा लगती है। इसी सोच की, ऐसी सशक्त बानियों की आज के समय मे समाज को बहुत आवश्यकता है । हो सकता है उनकी और बहुत सी बातों में शायद मेरा मतैक्य न हो लेकिन इस बात से मैं शतप्रतिशत सहमत हूं कि राजनीति में बैठे हुये लोगों को जाति और धर्म के भेद को परे रखकर ही अपने राजनीतिक दांव पेंच चलें इसके लिये किसी खास दर्शन या शिक्षा की जरुरत नहीं है बल्कि सर्वधर्म समभाव से सबके भले की भावना हृदय में रखने भर की जरूरत है।

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भारत की डिजिटल क्रांति के जनक श्री राजीव गाँधी को उनकी पुण्य तिथि पर भावभीनी श्रद्धांजलि !!

आज हर ओर डिजिटल इंडिया के जयघोष की गूँज के बीच हम एक उस सबसे महत्त्वपूर्ण इंसान को भूल गए जिसने भारत में इस डिजिटल क्रांति का बीज बोया था । आज हम सब टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में भारत के बढ़ते हुए क़दमों को लेकर बहुत खुश हैं, होना भी चाहिए …. आज इस क्षेत्र में भारत जिस ऊंचाई पर खड़ा है वह सचमुच गर्व करने योग्य बात है। 

आज शायद बहुत से लोगों को यह याद भी नहीं कि आज से लगभग ढाई दशक पहले जब श्री राजीव गांधी ने देश में कंप्यूटर युग की क्रांति का शंखनाद किया था तो क्या नेता क्या जनता, सबने एक स्वर में इसका पुरजोर विरोध किया था यह कहते हुए कि यह देश को गर्त में डुबाने की साजिश है, जनता के साथ धोखा है। हर जगह लगभग हर दफ्तर के हर विभाग में यूनियन के लीडर इसका विरोध कर रहे थे, सबके मन में यह डर भरने की कोशिश कर रहे थे कि अगर कंप्यूटर आ गया हमारे देश में, तो हम सब बेरोजगार हो जायेंगे, एक एक कंप्यूटर १०-१० लोगों का या इससे भी ज्यादा का काम करेगा तो हमें कौन पूछेगा। इस लिए सबको एकसाथ मिलकर डटकर इसका विरोध करना चाहिए और किसी भी कीमत पर देश में कम्प्यूटरीकरण नहीं होने देना चाहिए। इस विरोध की लहर एक दो जगह नहीं बल्कि पूरे देश में थी और बहुत जबरदस्त थी। 

लेकिन राजीव जी ने अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए सारे विरोध के बावजूद हार नहीं मानी और देश में कंप्यूटर क्रांति का बीज बोया। शायद वो उस समय भविष्य को साफ साफ देख पाये थे कि आने वाला कल किस दिशा में करवट लेने वाला है। उन्होंने शायद यह जान लिया था कि भविष्य में सबके बराबर या सबसे आगे बढ़ कर खड़े होने के लिए देश को कंप्यूटर के युग में प्रवेश करना ही होगा। और उनके उस कदम के सुखद परिणाम आज हमारे सामने हैं । हालाँकि ऐसा भी नहीं है कि आज हमारा देश IT के क्षेत्र में जिस मुकाम पर है उसका सारा श्रेय सिर्फ और सिर्फ राजीव जी को ही जाता है, बिलकुल नहीं उन्होंने तो सिर्फ शुरुआत की थी …. उसके बाद उस तकनीकी क्रांति को यहाँ तक पहुँचाने में दशकों की मेहनत और बहुत से लोगों द्वारा सही और सामयिक निर्णयों का ही हाथ ज्यादा है। लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके उस सही समय पर सही दिशा में उठाये हुए कदम ने इस डिजिटल क्रांति के लिए नींव के पत्थर का काम किया है। लेकिन आज के राजनितिक परिप्रेक्ष्य में कोई भी किसी भी दल का छोटा या बड़ा एक भी नेता ऐसा नहीं है जो राजीव गांधी के इस अभूतपूर्व योगदान के लिए उनको जरा सा भी श्रेय देता हो या देना चाहता हो । कोई इस बारे में बात नहीं करता है , सब हम, हम मैं मैं में लगे हुए हैं। 

आज यहाँ सिलिकान वैली मे भारतीयों का वर्चस्व देखकर बहुत अच्छा लगता है, एक बार पुन: भारत की डिजिटल क्रांति के जनक को उनकी पुण्य तिथि पर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ

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आजकल ये जो एक नया ट्रेंड आ गया है किंग मेकर्स का यह देश के लिये घातक हो सकता है।  आजकल देखने में आ रहा है  कि चुनाव दरअसल नेताओं का काम नहीं रह गया है बल्कि पार्टियों के द्वारा नियुक्त किये गए कुछ पढ़े लिखे कुशल प्रबंधकों का दिमागी खेल बन कर रह गया है।  इस नये ट्रेंड में जो ये  मार्केटिंग और प्रबंधन के कुशल लोग अपने नियोक्ता के लिए काम करते हैं,  बहुत अच्छा करते हैं, लेकिन एक सवाल जो इन्हें  खुद से पूछना चाहिए वो ये कि क्या वे अपनी शिक्षा का उपयोग देश के भले के लिये कर रहे हैं ? नहीं !!  क्योंकि उनका सही मायनों मे नेतृत्व से, या पार्टी की विचारधारा से कुछ लेना देना नहीं होता वे तो अपनी कुशलता के बूते पर बस अपने नियोक्ता के पक्ष में एक ऐसा माहौल तैयार करने का काम करते हैं जो साधारण जनमानस के सोचने समझने की शक्ति पर धुंध की तरह छा जाता है, मतदाता वही करता है जो ये उससे करवाना चाहते हैं।  ये एक तरह से सम्मोहन जैसा वातावरण निर्मित कर देते हाँ और बेचारी जनता उस जाल में फंस जाती है और मजे की बात तो ये कि ख़ुशी ख़ुशी फंसती हैं, स्वयं को कम से कम उस समय तो ठगा हुआ भी नहीं महसूस करती ।  

लेकिन यकीन जानिये ये सिर्फ और सिर्फ अच्छे मैनेजर हैं और नियोक्ता बदलते ही इनकी वफ़ादारी नए नियोक्ता के साथ हो जाती है। प्रशान्त  इस तरह का एक उदाहरण हमारे सामने है ही, जिसने एक से अधिक नियोक्ता पार्टियों के लिये काम किया । लेकिन इस खेल में जनता बेचारी बलि का बकरा बन जाती है

हाँ यदि ये कुशल एवं समर्थ लोग केवल नौकरी की तरह ये काम न करके  पार्टी का हिस्सा बनें, उसकी विचारधारा से जुड़ें तो बात और है, इन पढ़े लिखे लोगों की यदि नेतृत्व क्षमता का लाभ भी देश को भी मिले तो जरूर बहुत अच्छे नतीजे हो सकते हैं

यह एक विचारणीय प्रश्न है, सोचिये, समझिये और फिर कोई हल निकालिये । क्योंकि जिनके मुँह सत्ता का खून लग चुका है वो तो येन केन प्रकारेण सत्ता को हथियाने का प्रयास करेंगे ही, फिर वो चाहे पक्ष मे बेठे हों या विपक्ष में…फैसला जनता को यानि कि आप को करना है कि आप अपने देश के साथ क्या करना चाहते हैं । 

शायद अब समय आ गया है कि राजनीति के तौर तरीकों मे कुछ बदलाव किये जाएँ और पात्रता की योग्यता के लिये मानदंड निर्धारित किये जाएँ, और शैक्षणिक एवं चारित्रिक योग्यता के आधार पर उम्मीदवारों चुनाव में खड़े होने की अनुमति प्रदान की जाये। बस अब बहुत हो गयी मनमानी, परिवारवाद और भाई-भतीजावाद… अब एक साफ सुथरी राजनीति का खाका तैयार करने की जरूरत है जो सिर्फ और सिर्फ देश हित की भावना को सर्वोपरि रख कर काम करे

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1 जनवरी से वाहनों पर लागू होगा सम विषम का नियम 

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मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि एक अच्छे फैसले का इतना विरोध क्यों हो रहा है। हम सिर्फ़ प्रदूषण की बात करते हैं लेकिन कोई कारगर उपाय नहीं करते हैं ।

कोई कुछ अच्छा करने की कोशिश करे तो हम उसमे रोड़ा अटकाने की कोशिश जरूर करेंगे। अब कैन्सर को दूर करने के लिए शल्य चिकित्सा की ही ज़रूरत होती है, हमेशा दवाई की गोली मीठी तो नहीं हो सकती ना।

देखा जाये तो इस फैसले से सरकार को तो कठिनाइयां ही आने वाली हैं, सरकार यह जानते हुए भी कि लोग उसके विरूद्ध हो सकते हैं यह जोखिम भरा फैसला जनता के भले के लिए ही ले रही है।

प्रदूषण कम होगा तो बीमारियां कम होंगी, दवा-इलाज की जरुरत कम होगी, खर्चे कम होंगे। संक्षिप्त में कहूँ तो मैं व्यक्तिगत रूप से दिल्ली सरकार के इस फ़ैसले का अनुमोदन करती हूँ। हाँ ये मानती हूँ कि इस नियम का पालन करवा पाना आसान नहीं होगा। लेकिन यदि हम सब चाहेंगे तो ये जरूर होगा।

आस-पास के लोग मिल कर बारी बारी से अपना वाहन प्रयोग कर सकते हैं, एक गाड़ी में एक व्यक्ति अकेले जाने के बजाये एक साथ चार पांच लोग मिलकर जा सकते हैं इस तरह से पब्लिक यातायात साधनों पर एकदम से जादा बोझ भी नहीं बढ़ेगा।

 अमेरिका में कार पूलिंग का सिस्टम है जिसमें चार-पांच लोग मिल कर साथ जाते हैं, बारी बारी से अपनी कार निकालते हैं। हर दिन ड्राइविंग का टेंशन भी नहीं होता, प्रदूषण कम होता है और पैसे की बचत भी होती है । सच कहें तो समय की भी बहुत बचत होती है, यहाँ सप्ताह में 5 दिन स्कूल होता है, बच्चों को स्कूल छोड़ने और वापस लाने के लिए जादातर 4-5 बच्चे एक साथ जाते हैं इस तरह हर अभिभावक को सप्ताह में एक ही दिन जाना पड़ता है।

हमे चाहिये कि हम सरकार के इस कदम को सफल बनाने मे साथ दें। चाह होगी तो राह भी निकल ही आयेगी

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वर्तमान सामाजिक- राजनीतिक परिदृश्य पर दृष्टिपात करें तो हमें भारत की एक बदली हुई तस्वीर नजर तो आती है। पर क्या इस बदली हुई तस्वीर से हम खुश हैं? कई सवाल हैं जो जेहन में उभर रहे हैं…  जैसे

 
 – क्या हमने ऐसे ही स्वतंत्र भारत का सपना देखा था ?
 – यदि नहीं तो क्या था हमारा सपना ?
 – और अपने सपनों को पूरा करने के लिए हमें क्या करना होगा ?
 – ऐसा क्या करें  कि हमेंअपने भारतीय होने पर गर्व हो ? 

इन सबके जवाब के पीछे ही वह मार्ग  छिपा है जिस पर चल कर हम अपने भारत की तस्वीर बदल सकते हैं। 
तो आइए हम सब मिलकर अपने सपनों को पूरा करने का प्रयास करते हुए, अपने भारत की एक नई तस्वीर बनाएं। 

राजनीतिक परिदृश्य में भारत की बदली हुयी तस्वीर के बारे में .. यदि हम वैश्वीकरण के नज़रिए से बात करें तो तस्वीर ख़ुशनुमा नज़र आती है, हम गर्व के साथ हिमालय की तरह सिर ऊँचा करके खड़े हैं विश्व के सामने, हमारी आवाज़ के ख़ास मायने हैं, हमें कोई नकार नहीं सकता। स्वतंत्रता के बाद सफलताओं और विकास का जो लम्बा सफ़र तय किया है हमारे देश ने, उसने हमारी एक अलग और मजबूत पहचान बनायी है दुनिया के सामने और आने वाले समय में बड़े और शशक्त काहे जाने वाले कई देशों को टक्कर देते हुये “Land of opportunities” बन कर उभरने की दावेदारी  भी काफ़ी प्रबल है जिस को कोई अनदेखा नहीं कर सकता.  

लेकिन अगर घर की बात करें, कहने का मतलब यह कि देश के अंदरूनी हालातों की बात करें तो वे तो बद से बदतर ही होते जा रहे हैं. राजनीति भ्रष्टाचार का दूसरा नाम बनकर रह गयी है. सब में जमकर होड़ लगी है “मेरी कमीज पर तुम्हारी कमीज से कम दाग़ क्यों?” या “हम बर्बरता में  किसी से कम नहीं”, या फ़िर  “भाई-भतीजा वाद”… हजारों करोड़ के घोटाले की बात तो ऐसे होती हैं मानो पान खा कर थूकने की बात हो रही हो. 

 

जिन संस्कारों और नैतिक  मूल्यों के के लिए भारतीय संस्कृति जानी जाती रही है उनका आज कहीं पता नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि हम पूरी तरह से विमुख हो गए हैं अपनी संस्कृति से, लेकिन शायद समन्वय की कमी है. हमारी प्राथमिकतायें स्वार्थपरक हो गयी हैं। हमें उनको नए सिरे से गढ़ना होगा. ऐसे में  “Back to basics” की राह शायद हालातों को बदलने में सहायक हो। बच्चे के पैदा होने से लेकर उसके सक्षम नागरिक बनने तक के सफ़र को यदि भारतीय संस्कृति और नैतिक मूल्यों और सुसंस्कारों का खाद पानी मिले तो ही एक ईमानदार, कर्मठ, दूसरों के बारे में सोचने वाली, पक्षपात की नीतियों से दूर एक ऐसी पौध का, ऐसी पीढ़ी का सृजन होगा जो हमारे सपनों के भारत का निर्माण कर सकेगी। जहाँ सब सबके लिए होंगे, सब सबका होगा, प्यार होगा, मान होगा और भाईचारा होगा.

यह लेख “उदन्ती” में इस लिंक पर देखें ….

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