रफ़ूगर
April 22, 2014 by Manju Mishra
माँ
शायद रफ़ूगर थी
तभी तो हमेशा
सारे कटे-फ़टे रिश्ते
इतनी ख़ूबसूरती से सी देती थी
कि बस
लाख ढूंढने से भी
टूट-फूट का कोई
निशान
मिलता नहीं था
किसी को …..
-:-
माँ
शायद जादूगर भी थी
तभी तो
पता नहीं
कब कहाँ कैसे
मगर जान सब जाती थी
बिना आंसू के भी, आँखों का
दर्द क्या खूब पढ़ती थी
ढूंढ निकलती थी
कोई न कोई नुस्खा
झटपट
अपने पिटारे जैसे मन से
और बस
चट-पट
खुशियां ही खुशियां बिखेर देती थी
हर और फूलों की तरह !
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Beautiful. Pathos filled.
Thank you !
I am glad you liked it
http://bulletinofblog.blogspot.in/2014/04/blog-post_23.html
रश्मि जी
अाप अायीं, अापने रचना को पसंद किया शेयर किया … बहुत बहुत अाभार अापका
सादर
सुंदर अभिव्यक्ति
Thank you Mukesh ji !
माँ ऐसी ही होती है
Thanks Anu !
माँ सच में सोख लेती है हर दर्द … सी देती है हर रिश्ता …
Thank you Nutan … very nice !!
sahi kah rahe hain Naswa ji … Thank you
नही माँ रफ़ूगर नही है
माँ जादूगर भी नहीं
एक हमदम है एक हमसफर है ,
जिसकी कोई मिसाल ही नहीं
कुछ रिश्तों के बचे खुचे
चिंदे
आज भी
इतने सालों बाद भी
उसकी सिलायी
के बक्से तले
सहेजे है
जस के तस
वो नही समझ पाती
उन्हे कहाँ और कैसे जोड़े
किंतु फिर भी रखे है सालों साल
तलहटी में पड़े
कभी पूछती है वो मुझसे
नूतन इनका क्या करूँ?
मै आँखो में झाँक कर कहूँ
माँ रहने दो पड़े
क्यों छेड़ती हो उन्हे
समय की पैनी सुई
में जीवन का धागा पिरोये
जुड़ गये है
सब अपने आप
मेरे देखते देखते
सालों साल
जो क़रीब थे वो दूर जाकर
फिर लौट आये
जुड़ जाने के लिये
उन बचेखुचे चिंदो में अपनी
बेशक़ीमती पहचान पाने के लिये
नही माँ रफ़ूगर नही है
माँ जादूगर भी नहीं
एक हमदम है एक हमसफर है ,
जिसकी कोई मिसाल ही नहीं
नूतन अप्रैल २४ २०१४
ॐ साईनाथाय नम:
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