जलती है
सुलगती है जब तक
हाथों से ओठों के बीच
खेलती है तब तक
जरा सी आग ठंडी क्या पड़ी
मसली गयी पैरों तले
हश्र एक सा
करता है ये मर्द
औरत हो या बीड़ी ….
लेकिन बस
अब बहुत हो गया
अब यह
समझना ही होगा
कि
समाज के सीने में
पलता हुआ कैंसर
अगर ख़त्म करना है तो
औरत को
बीड़ी होने से बचाना होगा
नहीं तो ये दर्द, ये तकलीफ
ये घुटन सब तबाह कर देगा
फिर …
न समाज रहेगा
न मर्द !
रही दशा न आज यह, बदला अब व्यवहार।
नारी अब स्वतंत्र यहाँ , पुरुष रहा अब हार ॥
बदला अवश्य है लेकिन बहुलता अभी भी पुराने व्यवहार और चलन की ही है। आज के उनन्त समाज में स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराधों का आँकड़ा यही दर्शाता है।